शनिवार, अगस्त 30, 2008

बौद्ध धर्म का विकास

परिनिर्वाण के बाद शीघ्र ही राजगृह में बौद्घ 'संगीति' (शाब्दिक अर्थ जहां संगायन अर्थात् उपदेश गाए तथा बुद्घ-वचन दोहराए जाएं) बुलाई गई। इस संगीति में 'विनय' (बौद्घ विहार का अनुशासन) और 'सूत्र' में विचार संग्रह किए गए। द्वितीय संगीति सौ वर्ष बाद खान-पान के आपसी विवाद को सुलझाने के लिए बुलाई गई थी। पर इसमें अनेक मत-मतांतर हो गए। इन्हें सुलझाने के लिए सम्राट् अशोक के समय तीसरी संगीति पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में हुई। इसमें 'त्रिपिटक' (तीन पिटारी) (बुद्घ के उपदेशों के तीन संग्रह) अर्थात् नियमों का संग्रह लिखा गया। इसी में मोग्गलिपुत्त तिस्स ने 'अभिधर्म' (श्रेष्ठ धर्म) और 'कथावस्तु' (विवाद के बिंदु) पुस्तकें लिखीं, जिन्होंने 'स्थविरवाद' (थेरवाद) की स्थापना की। उसमें जिनका शील अथवा दृष्टि संशय में थी, उन भिक्षुओं का निष्कासन हुआ। अशोक ने बौद्घ मत के प्रचार के लिए अनेक विहार एवं स्तूप बनवाए। उसके बाद मोग्गलिपुत्त के नेतृत्व में एशिया के सभी देशों में प्रचारक भिजवाए। पश्चिम में यवन देश और कंधार से लेकर उत्तर, दक्षिण तथा पूर्व के सभी देशों तक। बहुत से इतिहासकार अशोक द्वारा प्रचारित मत को उस समय भारत में प्रचलित सभी मतों का सार मानते हैं। इसके बाद प्रथम शताब्दी में कनिष्क के शासन काल में चतुर्थ संगीति हुई। कश्मीर के कुंडलवन विहार में अथवा जालंधर में, जिसमें अधिकांश अर्हत् एवं बोधिसत्व पश्चिम के विहारों से आए। तृतीय संगीति ने स्थविरवाद को प्रतिष्ठित किया जो बुद्घ-वचन पर आधारित आदि मत कहा जाता है तो चतुर्थ संगीति ने सर्वास्तिवाद (सर्व अस्ति) को, जो अधिक व्यापक कल्पना है।
बौद्घ दर्शन में चित्त (मन) का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है, जिससे सब भौतिक, मराभौतिक भाव एवं अवस्थाएं जानी जाती हैं। पहले भी इनमें कुछ भारतीय दार्शनिकों तथा सांख्य योगियों को ज्ञात थीं। उसी को एक आधुनिक, वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण ढंग से रखकर आगे बढ़ाया। गृहस्थ और श्रमण—दोनों प्रकार के शिष्य बने। साधारण शिष्यों के लिए पांच शील का विधान था, पर नए भिक्षु के लिए दस शील और उत्तरोत्तर उससे अधिक का विधान। 'बुद्घं शरणं गच्छामि, धर्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि' प्रवेश का मंत्र बना।


उनकी विशेषता जीवनोद्देश्य प्राप्त करने के लिए एक तर्कशुद्घ ढांचा खड़ा करने में है। इसके लिए प्राचीन भारतीय दर्शन में व्यवहृत शब्दों का प्रयोग किया। पंद्रह हजार ग्रंथों में संगृहीत विचारों में (जो अनेक देशों और भाषाओं में हैं) उन्होंने किसी नए मत के प्रचार की बात कभी नहीं कही। सदा चिरकाल से आए 'धम्म' (धर्म) का वर्णन किया। बारंबार कहा, 'एष पोराण पन्था:।' (पाली : यह पुरातन पंथ है) तरह-तरह के उदाहरण देकर तर्कसम्मत आधार पर दर्शन को कसा। वे समन्वयवादी थे, पुरातन विचारों को नए समयानुकूल ढंग से रखकर सबको क्रोध एवं हिंसा की प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त कर, त्याग और शांति का मार्ग सुझाया। इसी से करूणावतार कहाए। अपनी साधना के बल पर आध्यात्मिक ज्ञान के चरमोत्कर्ष पर जो अधिष्ठित हुए और जिन्होंने मानव के महाकल्याण का शंख फूंका, उस महाविभूति को श्रद्घा से भारत ने विष्णु का अवतार कहा।


उनका चिंतन भारतीय दर्शन की अजस्त्र प्रवाहित धारा का अभिन्न अंग है। भारतीय वाङ्मय में ज्ञान की अनेक धाराओं की वर्णन आया है--'वैदिका:, मीमांसका:, नैयायिका:, बौद्घा:, शैवा:, शाक्या:।' बौद्घ धारा भी भारतीय दर्शन  की शैली है। अनेक बाद पाश्चात्य मानसिकता लिये और दर्शन से अछूते कुछ व्यक्ति इस 'बौद्घ' धारा को एक अलग पंथ या वैदिक धारा के प्रति विद्रोह ( अथवा ब्राम्हणों के विरूद्घ क्षत्रिय विद्रोह) के रूप में चित्रित करते हैं। ये संपूर्ण बौद्घ ग्रंथों को धोखा देकर भारतीय संस्कृति को झुठलाते हैं। एक दिन हम लेह से दक्षिण-पूर्व सिंधु नदी पार कर वहां के प्रसिद्घ गुफा में पहुंचे तो त्रिविष्टप (तिब्बत) के पास इस बौद्घ मंदिर में बुद्घ भगवान की बृहत् मूर्ति के चारों ओर हिंदू देवी-देवताओं की, विष्णु के पूर्व अवतारों की प्रतिमाएं तथा चित्र देखे। ऎसा प्राय: सभी बौद्घ मंदिर और अन्य हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर एक-दूसरे से ग्रथित है।


कोरिया में बौद्ध मन्दिर - चित्र विकिपीडिया के सौजन्य से उसी की सर्तों पर

बुद्घ ने अपना उपदेश मागधी अथवा पाली में दिया। उसे सभी देशों में अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद करने का भिक्षुओं को आदेश दिया। बौद्घ साहित्य संसार के साहित्य की अपूर्व निधि है। बुद्घ के बाद ही उनकी पूजा और संभवतया मूर्तिपूजा प्रारंभ हुई। बुद्घ की मुद्राओं में मूर्तियां संपूर्ण एशिया में मिलती हैं और बौद्घ विहारों के अवशेष भी। उत्तर में साइबेरिया (प्राचीन शिविर देश, जहां शंकु की तरह के शिविरनुमा घर हैं) से लेकर मंगोलिया, चीन, जापान और दक्षिण-पूर्व के देश, वियतनाम (प्राचीन चंपा), कंबोडिया (प्राचीन कंबोज), थाईलैंड (प्राचीन स्याम), मलयेशिया (प्राचीन मलय देश), सुमात्रा, जावा (प्राचीन यव द्वीप)--सभी जगह यह मत छा गया। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि ईसा के जीवन के जो कुछ वर्ष अज्ञात हैं वे भारत में बीते, जहां से ईसा ने 'अहिंसा' अपनाई। पर येस्सलम में भी, जहां ईसा का जन्म हुआ, एक बौद्घ विहार का होना कहा जाता है, जहां से यह विचार ईसाई जगत में फैला।


इसके बाद संसार के सबसे बड़ भूखंड एशिया में भारतीय संस्कृति का पुन: आलोक फैला। भारतीय चिंतन का आधुनिक काल की देहली पर दस्तक देता स्वर्ण युग आया। बुद्घ के मानव मात्र के कल्याण के लिए इस संदेश को एशिया ने सिर माथे लगाया। कल्पना करें उदात्त सभ्यता के परम उत्कर्ष की, जिसने मानव की समता के आदर्श को रखा, विचार -स्वतंत्रता का बोध कराकर तर्क के आधार पर जीवन-दर्शन खड़ा किया, अहिंसा का अमर संदेश दिया, त्याग एवं शांति के आधार पर मान-कल्याण का मार्ग सुझाया। यह संसार के इतिहास में अभूतपूर्व है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
०१- रूपक कथाऍं वेद एवं उपनिषद् के अर्थ समझाने के लिए लिखी गईं
०२- सृष्टि की दार्शनिक भूमिका
०३ वाराह अवतार
०४ जल-प्‍लावन की गाथा
०५ देवासुर संग्राम की भूमिका
०६ अमृत-मंथन कथा की सार्थकता
०७ कच्‍छप अवतार
०८ शिव पुराण - कथा
०९ हिरण्‍यकशिपु और प्रहलाद
१० वामन अवतार और बलि
११ राजा, क्षत्रिय, और पृथ्वी की कथा
१२ गंगावतरण - भारतीय पौराणिक इतिहास की सबसे महत्‍वपूर्ण कथा
१३ परशुराम अवतार
१४ त्रेता युग
१५ राम कथा
१६ कृष्ण लीला
१७ कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियों
१८ महाभारत में, कृष्ण की धर्म शिक्षा
१९ कृष्ण की मृत्यु और कलियुग की प्रारम्भ
२० बौद्ध धर्म
२१ जैन धर्म
२२ सिद्धार्त से गौतम बुद्ध तक का सफर
२३ बौद्ध धर्म का विकास

4 टिप्‍पणियां:

  1. और धम्‍म
    हिंदुओं के धर्म ग्रंथ गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘जब-जब धर्म की हानि व अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूं एवं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधु पुरुषों का उद्धार करने व पाप-कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए व धर्म की स्थापना हेतु मैं प्रकट होता हूं।’
    अवतारवाद के इस सिद्धांत का आश्रय लेकर कुछ लोग बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार बताते हैं। जब भारत में बौद्ध धर्म का बोलबाला था, उस समय पुराणों की रचना करने वाले बुद्ध की उपेक्षा नहीं कर सके। उस समय के धार्मिक और सामाजिक वातावरण ने पुराणों के निर्माताओं को, बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार मानने के लिए बाध्य कर दिया।
    स्वामी विवेकानंद, बुद्ध के प्रति अपार श्रद्धा रखते थे, इसलिए उन्होंने बुद्ध को अवतार ही नहीं, बल्कि ईश्वर तक कह डाला, जबकि अवतार और ईश्वर में जमीन-आसमान का अंतर होता है। स्वामी विवेकानंद का बुद्ध को ईश्वर कहना इतिहास एवं बौद्ध धर्म की मान्यताओं के विरुद्ध है।
    भारत के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि बुद्ध पौराणिक अवतार नहीं,बल्कि ऐतिहासिक पुरुष थे। बुद्ध ने स्वयं को श्रीकृष्ण की तरह न तो ईश्वर ही कहा और न विष्णु का अवतार ही बताया। उन्होंने अपने को शुद्धोदन व महामाया के प्राकृतिक-पुत्र होने के अतिरिक्त कभी और कोई दावा नहीं किया।
    जिस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया था, वैसा कोई करिश्मा बुद्ध ने कभी भीअपने शिष्यों को नहीं दिखाया था। उन्होंने कभी खुद को ईश्वर का पैगाम लाने वाला पैगंबर या खुदा का बेटा नहीं बताया। इतना ही नहीं, बुद्ध ने अपने भिक्खुओं को भी करिश्मे व जादू-टोने दिखाकर लोगों को भ्रमित करने से मना कियाथा। बुद्ध के उपदेश प्रज्ञा, शील, समाधि पर निर्भर करते हैं, जिनका आधार विशुद्ध वैज्ञानिक है।
    बुद्ध ने अपने ‘धम्म-शासन’ में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप सेकभी ईश्वरीय होने का दावा नहीं किया था। उनका धर्म ईश्वरीय उपदेश नहीं, बल्कि मनुष्यों के हित व सुख के लिए मनुष्य द्वारा आविष्कृत धर्म था। यह अपौरुषेय नहीं है। जो धर्म अवतारवाद के सिद्धांत को मानते हैं, वे परा-प्रकृति (ब्रह्मा आदि) में विश्वास करते हैं। लेकिन बुद्ध अवतारवाद पर विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने परा-प्रकृति में विश्वास को अधर्म कहा था। उदाहरण के लिए जगत में जब कोई घटना घटती है, तो परा-प्रकृति पर विश्वास करने वाले उसे हरि-इच्छा कहते हैं, लेकिन बुद्ध के अनुसार इन घटनाओं के समुचित प्राकृतिक कारण होते हैं। ये सभी घटनाएं कारण-कार्य के नियम से घटती रहती हैं।
    आज विश्व के जितने भी प्रसिद्ध वैज्ञानिक व महान दार्शनिक हैं, वे बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं, बल्कि महामानव मानते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आंइस्टीन, पंडित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन, कामरेड लेनिन, डॉ. अंबेडकर, पंडित जवाहर लाल नेहरू आदि जैसे लोग व दुनिया के सभी इतिहासकार बुद्ध को अन्य मनुष्यों की भांति मनुष्य ही मानते हैं। चूंकि वे मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम एवंमहानतम प्रज्ञावान, शीलवान, मैत्रीवान एवं करुणा के सागर थे, इसलिए उन्हें महामानव कहा जाता है।
    श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, जापान, कोरिया, विएतनाम,मंगोलिया, चीन, ताइवान, तिब्बत व भूटान आदि बौद्ध देशों के लोग बुद्ध को ईश्वर एवं विष्णु का अवतार नहीं मानते। भारत के हिंदुओं को छोड़ कर शेष विश्व बुद्ध को महा मानव ही कहता है।

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  2. dev ji ur true
    apka nam dev hai aur aapne khud ka sahi abhyas kiya hai
    dev sandya kalpanik hai

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